अथ प्रथमोअध्याय -
धृतराष्ट्र उवाच -
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव : |
मामका : पांडवाश्चैव किमकुरवत संजय ||
धृतराष्ट्र बोले - हे संजय !! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र मैं एकत्र हुए , युध्य की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया ?
कौरव वंश के वयोवृद्ध प्रतापवान पितामह ने वहां उपस्तिथ योद्धाओं के हर्ष की वृद्धि करते हुए शिंह के समान उच्च गर्जना करके शंख बजाया |
संजय ने अपने दिव्य नेत्रों से दृश्यमान रणभूमि के हर पल को धृतराष्ट्र को विवरण देना आरम्भ कर दिया |
पांडवों और कौरवों की रणनीति , युध्य मैं उपस्तिथ योद्धाओं की जानकारी , उनके अश्त्र -शस्त्र की संख्या , सेना की व्यवस्था आदि देना शुरू कर दिया |अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम |
पर्याप्तं त्विदम एतेषां बलं भीमाभिराक्षितम ||
हमारा भीष्म के द्वारा संरक्षित बल अपर्याप्त है , किन्तु उनका { पांडवों का } भीम के द्वारा संरक्षित बल पर्याप्त है |कौरव वंश के वयोवृद्ध प्रतापवान पितामह ने वहां उपस्तिथ योद्धाओं के हर्ष की वृद्धि करते हुए शिंह के समान उच्च गर्जना करके शंख बजाया |
तत: शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा : |
सह सेवाश्यहन्यनत स शब्द्स्तुमुलोअभवत ||
इसके पश्चात शंख , नगाड़े , ढोल , मृदंग और रणसिंघे आदि एक साथ ही बज उठे | वह ध्वनि बड़ी भयंकर थी |
पांचजन्य , देवदत्त , पोंड्र , सुघोष और मणिपुष्पक शंखों की तीव्र ध्वनि पांडवों के द्वारा की गई | उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथिवी को नाद से व्याप्त करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण कर दिया |
जब , श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य रथ को स्थापित किया , तब वहां संबंधों और रिश्तों की भीड़ को वहां पाया , अत्यंत करुणा और शोक ग्रस्त होकर अर्जुन ने कहा -
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ||
हे कृष्ण !! युध्य की इच्छा से खड़े इन स्वजनों को देखकर मेरे सारे अंग शिथिल हो रहे हैं , मुख भी सूखा जा रहा है , मेरा शरीर कांप रहा है , उसमें रोमांच हो रहा है |
" भीड़ का सामना अकेले करने से वही व्यक्ति घबराता है , जो खोया हुआ है स्वयं के विचारों की भीड़ मैं और जिसने अपने विचारों की भीड़ मैं से चुनकर किसी एक विशिष्ट विचार { एकाग्रता को } आगे लाने का अभ्यास किया है , वह पूरी दुनियां के सामने अकेला खड़ा रह सकता है | "
क्रमश:- - -
रेनू शर्मा ...
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nice
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